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Friday, August 12, 2016

बन्धक एक सच्ची कहानी

बहुत समय पहले की बात है एक राजा हुआ करते थे वे बहुत ही शांतिप्रिय थे उनका राज्य हर तरह से खुशहाल था प्रजा आज्ञाकारी और ईमानदार हुआ करती थी किसी से किसी का कोई रागद्वेष नहीं था सभी अपने अपने कार्य में मस्त रहते थे राज्य में सभी प्रणालियाँ सही से कार्य कर रही थी विशेषतौर से राज्य कि संचार व्यवस्था बहुत ही व्यवस्थित एवं ईमानदारी से चल रही थी प्रजा संचार का कार्य देखने वालों को बड़ी ही इज्जत से देखा करते थे एवं उनका सम्मान करते थे,धीरे धीरे समय चक्र बदलता चला गया राजा और प्रजा कि कई पीढियां बीतती चली गयी लेकिन संचार व्यवस्था अभी भी दुरुस्त थी ,धीरे धीरे नए राजाओं ने संचार व्यवस्था के साथ साथ प्रजा को अन्य सुविधाएँ भी संचारकर्मियों से उपलब्ध करवाने और मुनाफा कमाने के बारे में सोचा लेकिन उदारहृदय होने एवं कल्याणकारी राज्य का ढोल पीटते रहने के कारण राजा ने संचार साधनों के साथ साथ अन्य उपलब्ध करायी गयी वस्तुवों पर प्रजा को छूट देनी शुरू कर दी नतीजा मुनाफे की जगह घाटा होने लगा लेकिन इसकी कोई परवाह नहीं की गई और राजकोष से घाटे को पूरा किया जाता रहा ये व्यवस्था भी लम्बे समय तक यथावत चलती रही न प्रजा को कोई परेशानी थी न ही राजा को,फिर समय ने पलटी खाई अब राजा ज्यादा पढ़े लिखे और होशियार हो गए थे अब वे हर तरह से मुनाफा कमाने की सोचने लगे क्योंकि कल्याणकारी नीति से राजकोष लगातार घटता जा रहा था लिहाजा राजा ने फैसला किया कि अब अपने सभी कारिंदों को मुनाफा कमाने पर लगा दिया जाय इसलिए उसने कर्मियों के माध्यम से कई सारे पदार्थ जनता को बेचने के लिए देने शुरू कर दिए पर हाय राम ये क्या हुआ कर्मी तो बेचने के नाम से ही बिदकने लगे उनका मानना था कि हमें तो संदेशों का आदान प्रदान करना था ये बेचने वाली चीज तो हमें कभी सिखाई ही नहीं गई खैर कुछ चीजें जो प्रजा को सही लगी उन्होंने खरीदी भी लेकिन राजा अनावश्यक चीजों को भी बेचने कि जिद करने लगा नतीजा क्या हुआ उन चीजों को कर्मियों ने खुद ही खरीदना शुरू कर दिया ताकि राजा के सामने इज्जत बची रहे लेकिन मुनाफा तब भी नहीं हुआ क्योंकि अधिकांश मुनाफा तो रखरखाव एवं यात्राओं पर ही खर्च कर दिया जाता था नतीजा ये निकाला गया कि सभी कर्मी कामचोर हैं ये काम  करना ही नहीं चाहते और इसी वजह से घाटा हो रहा है उधर राजा कि निगाह बेचारे संचार व्यवस्था से भटक चुकी थी इसलिए संचार का कार्य कुछ कुटिल चोरों ने अपने हाथ में लेना शुरू कर दिया लेकिन तब भी राजा की आँख नहीं खुली,खुलती भी कैसे जिन्होंने आँख खोलने का कार्य सौंपा गया था वे सब सो रहे थे उनका मानना था ये मुट्ठी भर चोर हमारा क्या बिगाड़  लेंगे लेकिन चोर बड़े धूर्त किस्म के थे उन्होंने राज्य की पूरी संचार व्यवस्था को अपने हाथ में लेना शुरू कर दिया और प्रजा से मनमानी करने लगे उन्हें जहाँ उचित लगा वहां तेज तर्रार घोड़ों से सन्देश पहुचाने शुरू कर दिए जबकि राजा के हरकारे बेचारे पैदल चलते थे लिहाजा प्रजा का ध्यान तेज घोड़ों से सन्देश भेजने में लग गया और कुटिल चोर आसानी से मुनाफा कमाने लगे फिर राजा को होश आने लगी कि ये क्या हो गया मैंने जिस व्यवस्था को बेकार समझा था घटे का सौदा समझ था उसी व्यवस्था से बिना कुछ अन्य कार्य के भी कुछ लोग मुनाफा कमा रहे हैं लिहाजा राजा ने भी घोड़े रखने शुरू कर दिए लेकिन इन वर्षों में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन ये आया कि राजा के जो कर्मी ईमानदार थे वे अब पैसा कमाने कि इच्छा रखने लगे लिहाजा कुछ लोग बेईमान भी हो गए वे कुटिल चोरों से जा मिले और व्यवस्था ख़राब होने और मुनाफा न कमाने का सारा ठीकरा अन्य कर्मियों के सर फोड़कर अपना उल्लू सीधा करते रहे वे राजा के विश्वासपात्र भी बने रहे उनको काम भी नहीं करना पड़ता था और उनका मुनाफा दुगुना हो गया था लेकिन राजकोष में घाटा ही हो रहा था राजा परेशान था कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है अंतत राजा के कुछ सलाहकारों द्वारा जोर जोर से कर्मियों के निक्कमे होने का ढोल पीता जाने लगा और उन पर नजर रखने के लिए नए नए सूबेदारों कि भरती कि जाती रही कालांतर में सूबेदार बढ़ते रहे और कर्मी घटते रहे लेकिन फिर भी मुनाफा प्रयाप्त मात्र में नहीं हुआ फिर राजा ने कुछ विदेशी विद्वानों को आमंत्रित किया कि कैसे घाटे को मुनाफे में बदला जाय विदेशी विद्वानों ने सदियों पुराणी सफल व्यवथा को बेकार बता दिया और नयी व्यवस्था लागू करने कि सिफारिश कर दी साथ ही उसने कर्मियों की संख्या को कम करने और मशीनों के माध्यम से कार्य करने पर जोर दिया और सूबेदारों कि संख्या भी बढाई लिहाजा जो कर्मचारी कभी इज्जत और सम्मान का पात्र था अब दया का पत्र बन चुका था उस पर कामचोर होने का ठप्पा जो लगा दिया गया था खैर राजा ने अपने कर्मियों से उबते हुए व्यवस्था की कुछ अहम् कड़ियाँ ठेके के माध्यम से करवाने का फैसला किया ताकि कामचोर कर्मियों को सबक सिखाने के साथ साथ अच्छा मुनाफा भी कमाया जा सके लेकिन भैय्या ठेकेदार तो पूरा ठेकेदार था ठेका मिलते ही उसने रंग दिखाने शुरू कर दिए क्योंकि उसने सूबेदारों से दोस्ती कर ली और काम सही न होने का ठीकरा फिर से बचे खुचे कर्मियों पर फोड़ना शुरू कर दिया लिहाजा राजा अभी भी मुनाफा कमाने कि सोच तो रहा है कर्मियों के द्वारा जी तोड़ मेहनत भी कि जा रही है लेकिन मुनाफा कहाँ और क्यों जा रहा है इसका पता ही नहीं चल पा  रहा है कर्मियों को लगातार कोपभाजन बनाया जा रहा है सूबेदारों कि पीठ ठोकी जा रही है घाटा बढ़ता ही जा रहा है राजकोष सूबेदारों और सस्ती लोकप्रियता को हासिल करने के लुटाया जा रहा है और कामचोरी निक्कमेपन और घाटा कर्मियों के माथे मढ़ा जा रहा है ठेकेदार अब आँखे दिखाने लगा है और धीरे धीरे पूरी व्यवस्था को उसने बन्धक बना दिया है राजा अब उसे हटा भी नहीं सकता है क्योंकि पूरी व्यवस्था एक झटके में पंगु हो जाने का खतरा है कर्मी रोज ठेकेदार को गाली  देते हुए सारा दिन काम  कर रहा है उसके दिन और रात राजा और ठेकेदार के बन्धक  बन गए हैं लेकिन वो मजबूर है पेट जो पालना है .


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